जीवन-परिचय- भारतीय संस्कृति के उन्नायक महाकवि तुलसीदास का
अब तक कोई प्रामाणिक जीवनचरित नहीं प्रस्तुत हो सका है । उनके जन्म काल के विषय
में विद्वानों में मतभेद है । इनके जन्मतिथि के सम्बन्ध में निम्नलिखित तीन प्रमाण
मिलते है ।
1 . 1497 ई० , 2 . 1526 , 3 . 1532 ई० ।
तुलसी
के जन्मस्थान के विषय में भी निम्नलिखित तीन मत प्रचलित है।
1 . बांदा जिले का राजापुर ग्राम
। , 2
. एटा का सोरों नामक स्थान । 3 . गोण्डा जिले का सूकर - क्षेत्र ।
तुलसी
की माता का नाम हुलसी तथा पिता का नाम आत्माराम दुबे था । इनका विवाह पंडित
दीनबन्यु पाठक की पुत्री रत्नावली के साथ हुआ था । पत्नी से इन्हें अति प्रेम था ।
एक बार पत्नी बिना बताए नैहर चली गयी । ये पत्नी का वियोग सहन न कर सके और भयंकर
वर्षा में चढ़ती नदी को पार करके रात के समय में पत्नी के पास जा पहुँचे । पत्नी
को यह बुरा लगा । उसने फटकारते हुए तुलसी से कहा-
लाज न आवत आपको , दौरे आयहु साथ ।
धिक धिक् ऐसे प्रेम को , कहा कहौं मैं नाथ
॥
अस्थि चर्ममय देह मम , जासौ ऐसी प्रीति
।
वैसी जो श्रीराम महँ , होति न तो भव -
भीति ॥
पत्नी
की इस फटकार ने तुलसीदास की आँखें खोल दी । वे संसार से विरक्त हो गये और घर -
द्वार छोड़ कर रामभक्ति में लीन हो गये । वे राम का गुणगान करते हुए कुछ दिन काशी
में रहे , फिर कुछ समय अयोध्या में रहे और तत्पश्चात् कुछ
समय चित्रकूट में निवास किया । अनेक सन्तो से इनकी भेट हुई । राम का गुण - कीर्तन
करते हुए इस सन्त ने विशाल और उत्तम साहित्य की रचना की ।
1623
ई० ( संवत 1680 ) में काशी में इनकी पार्थिव लीला का संवरण हुआ । इनकी मृत्यु के
सम्बन में निम्नलिखित दोहा प्रसिद्ध है।
संवत् सोलह सौ असी , असी गंग के तीर ।
श्रावण शुक्ला सप्तमी , तुलसी तज्यो शरीर
॥
परन्तु अधिकतर विद्वान् श्रावण शुक्ला सप्तमी के
स्थान पर ' श्रावण कृष्णा तीज शनि ' को प्रामाणिक
मानते है । कृतित्व एवं व्यक्तित्व तुलसी के इष्टदेव राम थे - " तुलसी चाहत
जनम भरि रामचरन अनुराग " । यही इनके जीवन का परम आदर्श था । राम के प्रति
इनकी अटूट भक्तिभावना की अभिव्यक्ति ही इनके सम्पूर्ण काव्य ग्रन्थों का विषय है ।
तुलसी द्वारा रचित निम्नांकित ग्रन्थ प्रसिद्ध है -
दोहावली , गीतावली ,
रामचरितमानस , रामाज्ञा - प्रश्नावली,
विनयपत्रिका , हनुमान - बाहुक , रामलला नहछू , पार्वती - मंगल , वरवै - रासायण , वैराग्य - संदीपनी , कृष्ण - गीतावली आदि ।
पुरुषोत्तम श्रीराम के जीवन चरित को दर्शाने
वाला रामचरितमानस तुलसीदास का सर्वाधिक लोकप्रिय महाकाव्य है , जिसमें भारतीय संस्कृति , धर्म , दर्शन , भक्ति तथा काव्य का अद्भुत समन्वय हुआ है ।
साथ ही भाषा , भाव , उद्देश्य ,
कथा - वस्तु , चरित्र - चित्रण , संवाद , प्रकृति - वर्णन आदि सभी दृष्टियों से
हिन्दी साहित्य का यह अद्वितीय ग्रन्थ है । इसमें तुलसी के भक्त - रूप और कवि -
रूप का चरम उत्कर्ष है । विनयपत्रिका हिन्दी साहित्य का अति सुन्दर गीति काव्य है
। यह भक्त तुलसी के हृदय का प्रत्यक्ष दर्शन है । आत्मग्लानि , भक्त - हृदय का प्रणतिपूर्ण समर्पण , आराध्य के
प्रति भक्त का दैन्य , यही विनयपत्रिका के मुख्य - विषय हैं
। भक्ति के तत्वों का बड़ा व्यापक और पूर्ण विवेचन विनयपत्रिका में हुआ है ।
आलम्बन के महत्त्व से प्रेरित दीनता , ग्लानि , बिरक्ति विषयक पद बड़ी स्पष्ट , बोधगम्य शैली में
लिखे गये हैं । यह वस्तुतः तुलसीदास के अन्तःकरण का इतिहास है ।
साहित्यिक
- अवदान-
लोकमंगल
की भावना तुलसी के काव्य का मूलाधार है , लोक मंगल की अखण्ड
व्याख्या है । काव्य के उद्देश्य के सम्बन्ध में तुलसी का , दृष्टिकोण
सर्वथा सामाजिक था । इनके मत में वही कीर्ति , कविता और
सम्पत्ति उत्तम है , ' जो गंगा के समान सबका हित करने वाली
हो - " कीरति भनिति
भूति भलि सोई । सूरसरि सम सबकर हित होई । " सामाजिक एवं पारिवारिक
जीवन का उच्चतम . आदर्श जनमानस के समक्ष रखना ही इनका काव्यादर्श था । जीवन के
मार्मिक स्थलों की इनको अद्भुत पहचान थी । तुलसीदासजी ने राम के शक्ति , शील , सौन्दर्य समन्वित रूप की अवतारणा की है । इनका
सम्पूर्ण काव्य समन्वयवाद की विराट चेष्टा है । धर्म के क्षेत्र में शैव एवं वैष्णवों
का , दर्शन के क्षेत्र में अद्वैत एवं विशिष्टाद्वैत का ,
साधना के क्षेत्र में ज्ञान , भक्ति एवं कर्म
का तथा भाषा के क्षेत्र में सामाजिक जीवन के विविध पक्षों का अपूर्व समन्वय किया ।
वास्तव में तुलसी गौतम बुद्ध के बाद दुसरे महान समन्वयवादी थे . फिर भी ज्ञान की
अपेक्षा भक्ति का राजपथ ही इन्हें अधिक रुचिकर लगा है ।
शैली-सौंदर्य
- तुलसीदास ने अपने समय की प्रचलित सभी शैलियों में
रचनाएँ की , जैसे दोहावली में दोहा पद्धति , रामचरितमानस में दोहा - चौपाई सोरठा तथा हरिगीतिका युक्त पद्धति , विनयपत्रिका में गीति पद्धति , कवितावली में कवित्त
- सवैया पद्धति को इन्होंने अपनाया । इन सभी शैलियों में इन्हें अद्भुत् सफलता
मिली है जो इनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा तथा काव्यशास्त्र में इनकी गहन अन्तर्दृष्टि
की परिचायक है ।
भाषा
- तुलसीदास भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे । इनके समय में
काव्यभाषा के रूप में दो भाषाएं प्रचलित थी - ब्रज और अवधी । इन दोनों भाषाओं पर
इनका समान अधिकार या और इन दोनों में इन्होंने अपूर्व | कौशल
के साथ उत्कृष्ट रचनाएँ प्रस्तुत की । उनकी अवधी जायसी की अपेक्षा अधिक परिष्त एवं
चिन्ताकर्षक । है । कवितावली , विनय पत्रिका एवं गीतावली आदि
रचनाएं ब्रजभाषा में हैं । उन्होंने ब्रजभाषा में भाषा अति कुशलता से व्यक्त किए
हैं ।
अलंकार-योजना
- तुलसीदास जी के ग्रन्थों में अलंकारों का स्वाभाविक
प्रयोग हुआ है । उत्प्रेक्षा अलंकार प्रयोग के दर्शन अत्यधिक होते हैं । साहश्य -
मूलक अलंकारों के अतिरिक्त विरोधमूलक अलंकारों को भी गोस्वामी जी ने अपने काव्य
में स्थान दिया है । उपमा , रूपक एवं अनुप्रास तो उनके
प्रत्येक छन्द में मिल जाएंगे ।
लोकादर्श-स्थापन
- गो० तुलसीदास एक आदर्शवादी कवि थे , उन्हें तत्कालीन स्थिति से सन्तोष नहीं था । चारों ओर अज्ञान , अनाचार एवं अनियमितता का ही बोलबाला था अतः उन्होंने यह अनुभव किया कि सभी
अपने - अपने कर्तव्यों का पालन करें । वे वणश्रिम व्यवस्था को आवश्यक समझते थे ,
इसके अभाव में ही लोकजीवन कर्तव्यहीनता ग्रसित हो रहा था ।
वे
समन्वयवादी कवि थे । उन्होंने सभी क्षेत्रों में समन्वय की स्थापना की । द्वैत -
अद्वैत दोनों को ही महत्त्व दिया शैव एवं वैष्णव उनके लिए समान थे , ज्ञान एवं भक्ति दोनों को ही उन्होंने महत्त्वपूर्ण माना । संस्कृत के
प्रकाण्ड पण्डित होते हुए भी उन्होंने जन कल्याणार्थ अपने ग्रन्थ को जनभाषा में ही
रखा ।
भक्ति-भावना - अन्य मध्ययुगीन सन्तों की
भाँति गोस्वामी जी की साधना ' भक्ति ही थी । भक्ति के समक्ष
उन्हें मुक्ति भी ईरिसत न थी । समस्त विश्व उनके लिए राममय था । राम की शरण में
जाने के अतिरिक्त इस कलिकाल में अन्य कोई मार्ग नहीं है वे राम को अन्तर्यामी से
बढ़कर बाहरजामी ' मानते हैं । प्रहलाद पर कष्ट पड़ा तो
भगवान् पत्थर से प्रकट हुए न कि हृदय से । उन्होंने भक्तों का उद्धार किया वे ही
तुलसी का उद्धार करेंगे । यही भावना उनके काव्य में सर्वत्र परिव्यात है ।
तुलसी उच्चकोटि के कवि तो थे ही वे एक महान जन
नायक थे । उनका काव्य हिन्दू समाज में ही नहीं वरन् समस्त विश्व में आदर पा रहा है
। विपथगामी जन - गानस का , उन्होंने अपनी प्रतिभा एवं ज्ञान
से मार्ग निर्देशन किया । हिन्दी जगत में उनकी काव्य - प्रतिभा का दिव्यालोक सदैव
आलोकित रहेगा ।

बहुत ही व्यवस्थित ढंग से आप ने लेख लिखा है, धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर लेख है मीरा बाई का जीवन परिचय पढे
ReplyDeleteबहुत कुछ नया पढ़ने को मिला बहुत अच्छा लिखते हैं
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