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| सूरदास biography in hindi |
सूरदास
जीवन-परिचय - सूरदास हिन्दी काव्यजगत के सूर्य माने जाते हैं
, वैष्णव कवियों में सूरदास का उच्चकोटि का स्थान है ,
सूरदास की सरस एवं भावपूर्ण रचना शैली अति प्रगल्भ एवं काव्यांग
पूर्ण है कि आगे आने वाले कवियों की भंगार एवं वात्सल्य परक उक्तियां सूरदास की
जूठन प्रतीत होती हैं । सूरदास ने भक्ति - वात्सल्य एवं शृंगार रस साधना की
त्रिवेणी को संगीत एवं माधुर्य से अभिमण्डित किया है ।
महाकवि
सूरदास का जन्म सं० 1535 वि० ( सन् 1478 ई० ) माना जाता है । आगरा के समीपवर्ती रुनकता नामक ग्राम के आस - पास
किसी सारस्वत ब्राह्मण कुल में इनका जन्म हआ था । इनके पिता का नाम पं० रामदास
सारस्वत था । कहा जाता है कि यह जन्मान्ध थे । भगवद् - भक्ति की इच्छा से सूर अपने
पिता की अनुमति प्राप्त कर यमुना के तट पर गऊघाट पर रहने लगे । वृन्दावन की
तीर्थयात्रा पर जाते हुए इनकी भेंट महाप्रभु वल्लभाचार्य से हुई , जिनसे सूरदास ने दीक्षा ली । महाप्रभु इन्हें अपने साथ ले गये और गोवर्धन
पर स्थित मन्दिर में अपने आराध्य श्रीनाथजी की सेवा में , इन्हें
कीर्तन करने को नियुक्त किया । सूर नित्य . नया पद बनाकर और इकतारे पर गाकर भगवान्
की स्तुति करते थे । कहा जाता है कि इन्होंने सवा लाख पद रचे , जिनमें से लगभग दस सहस्र ही अब तक उपलब्ध हो सके हैं । परन्तु ये पद भी
इन्हें हिन्दी का श्रेष्ठ महाकवि सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है । इनका गोलोकवास
लगभग संवत् 1640 ( सन् 1563 ई० ) में
मथुरा के निकट ' पारसौली ' नामक ग्राम
में हुआ था ।
कृतित्व एवं व्यक्तित्व- सूरदास के पदों का संग्रह ' सूरसागर '
है । '
साहित्यलहरी ' इनका दुसरा प्रसिद्ध
काव्य ग्रन्थ हैं । जिसमें दृष्टकूट पद हैं , इसमें रस ,
अलंकार एवं नायिका भेद का वर्णन मिलता है । सूरसारावली इनका तीसरा प्रसिद्ध ग्रन्थ है ,
जिसमें दो - दो पंक्ति के 1106 पद हैं ।
सूरदास द्वारा रचित '
गोवर्धन - लीला ' , ' नागलीला ' , ' पद्य संग्रह ,
' सूर पचीसी '
, ' ब्याहंलो
' , ' नल
- दमयन्ती ' आदि ग्रन्थ भी प्रकाश में आये हैं परन्तु सूर ' सूरसागर '
से ही जगत् - विख्यात हुए हैं ।
साहित्यिक
- अवदान
मौलिकता - ' सूरसागर ' के वर्ण्य - विषय का आधार ' श्रीमद्भागवत ' है फिर भी इनके साहित्य में अपनी
मौलिक उद्भावनायें हैं । सूर ने भागवत के कथा - चित्रों में न केवल सरसता तथा
मधुरता का संचार किया है अपितु अनेक नवीन
प्रकरणों का सजन भी किया है । राधा - कृष्ण के प्रेम को लेकर सूर ने जो रस का
समुद्र उमहाया है , इसी से इनकी रचना का नाम सूरसागर सार्थक
होता है ।
रस-परिपाक - श्रृंगार के ये अप्रतिम कवि है । इनके अतिरिक्त किसी अन्य कवि में
श्रृंगार के दोनो विभागा - संयोग एवं विप्रलम्भ - का इतना उत्कृष्ट वर्णन नहीं
किया । इनका बाल - वर्णन बाल्यावस्था की चित्ताकर्षक झाकियाँ प्रस्तुत करता है ।
इस प्रकार के पदों में उल्लास , उत्कंठा , चिन्ता , ईष्या आदि भावों की जो अभिव्यक्ति हुई है
वह बडी स्वाभाविक , मनोवैज्ञानिक तथा हृदयग्राही है ।
वात्सल्य के क्षेत्र में तो सर संसार की सभी भाषाओं के सभी कवियों से कहीं आगे है
। भ्रमर - गीत सूरदास की अनूठी कल्पना है । इसमें उन्होंने ज्ञान और योग के आडम्बर
को दूर कर प्रेम और भक्ति के महत्त्व को प्रतिपादित किया है ।
भाषा-सौंन्दर्य- ब्रजभाषा सूर के हाथों से जिस सौष्ठव के साथ ढली है , वैसा सौन्दर्य उसे बिरले ही कवि दे सके । कोमलकान्त पदावली से युक्त सूर
के पदों में गेयता , भावुकता , सरलता
तथा प्रभावोत्पादकता विद्यमान है । अलंकार प्रयोग के विषय में डॉ० हजारीप्रसाद
द्विवेदी कहते है कि - सूरदास जब अपने प्रिय विश्व का वर्णन शुरू करते है तो मानो
अलंकार - शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे पीछे दौड़ा करता है । उपमानों को बाड़ आ
जाती है , रूपकों की वर्षा होने लगती है ।
शैली-सौंदर्य- जन्म से लेकर किशोरावस्था तक का कृष्ण का चरित्र - चित्रण तो "
स्वर्ग को भी ईर्ष्यालु बनाने की क्षमता रखता है । बाललीलाओं के विशद वर्णन ,
गोचारण , वन में प्रत्यागमन , माखन - चोरी आदि के ललित पदों में नवनीत - प्रिय बालक कृष्ण की मधुर
मूर्ति की प्रतिष्ठा करने वाली माखन जैसी सुग्रास्य पंक्तियां सूर के पदों के
अतिरिक्त और कहां मिलेंगी ?
भावविभोर
और आत्मविस्मृत गोपियों के " दही ले ' के स्थान पर “
कृष्ण ले " कहते हए गलियों में घूमते - फिरते , गोपियों का तीर - कमान लिये वनों - उपवनों में " पिकचातकों ” का बसेरा न ले पाने के हेत भारी - भारी फिरते , प्रेम
की तल्लीनता के जो सजीव उदारहण सूर - साहित्य मे मिलते हैं वे निस्संदेह अन्यत्र दुर्लभ
है ।
हिन्दी साहित्य का सूरदास के कारण ही भक्तिकाल
स्वर्णयुग कहलाता है । महाप्रभु वल्लभाचार्य के पुत्र गोस्वामी विठ्ठलनाथ ने चार
अपने पिता के और चार अपने शिष्यों को मिलाकर आठ बड़े भक्त कवियों का अष्टछाप बनाया
या । सूर उन कवियों में अग्रगण्य हैं । वास्तव में कृष्ण - भक्त कवियों में सूर की
रचना बीमद्भागवत जैसा सम्मानित स्थान पाती रहेगी । शब्दों द्वारा अपने चरित्र -
नायक की माधुर्यमयी मूर्ति को पाठकों के नयनों के सम्मुख उपस्थित करने में सूर की
सफलता अद्वितीय है । सूर ने तत्कालीन परिस्थितियों में खिन्न समाज का मान भगवान की
हंसती - खेलती , लोकरंजक मूर्ति दिखाकर बहलाया और इस प्रकार
आगे इलकर भगवान के लोकरक्षक स्वरूप की प्रतिष्ठा के हेतु बड़ी ही अच्छी पृष्ठभूमि
उपस्थित की ।