जीवन - परिचय- भारत के महान
संत और आध्यात्मिक कवि कबीर दास का जन्म वर्ष 1440 में हुआ था। इस्लाम के अनुसार ‘कबीर’ का अर्थ महान होता है। इस बात का कोई साक्ष्य
नहीं है कि उनके असली माता-पिता कौन थे लेकिन ऐसा माना जाता है कि उनका लालन-पालन
एक गरीब मुस्लिम परिवार में हुआ था। उनको नीरु और नीमा (रखवाला) के द्वारा वाराणसी
के एक छोटे नगर से पाया गया था। वाराणसी के लहरतारा में
संत कबीर मठ में एक तालाब है जहाँ नीरु और नीमा नामक एक जोड़े ने कबीर को पाया था।
ये शांति और
सच्ची शिक्षण की महान इमारत है जहाँ पूरी दुनिया के संत वास्तविक शिक्षा की खातिर
आते है।कबीर के माँ-बाप बेहद गरीब और अनपढ़ थे लेकिन उन्होंने कबीर को पूरे दिल से
स्वीकार किया और खुद के व्यवसाय के बारे में शिक्षित किया। उन्होंने एक सामान्य
गृहस्वामी और एक सूफी के संतुलित जीवन को जीया।
ऐसा माना जाता है कि अपने बचपन में उन्होंने अपनी सारी धार्मिक
शिक्षा रामानंद नामक गुरु से ली। और एक दिन वो गुरु रामानंद के अच्छे शिष्य के रुप
में जाने गये। उनके महान कार्यों को पढ़ने के लिये अध्येता और विद्यार्थी कबीर दास
के घर में ठहरते है। ये माना जाता है कि उन्होंने अपनी धार्मिक शिक्षा गुरु
रामानंद से ली। शुरुआत में रामानंद कबीर दास को अपने शिष्य के रुप में लेने को
तैयार नहीं थे। लेकिन बाद की एक घटना ने रामानंद को कबीर को शिष्य बनाने में अहम
भूमिका निभायी। एक बार की बात है, संत कबीर तालाब की सीढ़ियों पर लेटे हुए थे और
रामा-रामा का मंत्र पढ़ रहे थे, रामानंद भोर में नहाने जा
रहे थे और कबीर उनके पैरों के नीचे आ गये इससे रामानंद को अपनी गलती का एहसास हुआ
और वे कबीर को अपने शिष्य के रुप में स्वीकार करने को मजबूर हो गये। ऐसा माना जाता
है कि कबीर जी का परिवार आज भी वाराणसी के कबीर चौरा में निवास करता है।
" चौदह सौ पचपन साल गये , चंद्रवार एक ठाठ
भये ।
जेठ सुदी बरसायत को , पूरनमासी प्रकट भए । "
हिन्दू धर्म,
इस्लाम के बिना छवि वाले भगवान के साथ व्यक्तिगत भक्तिभाव के साथ ही
तंत्रवाद जैसे उस समय के प्रचलित धार्मिक स्वाभाव के द्वारा कबीर दास के लिये
पूर्वाग्रह था, कबीर दास पहले भारतीय संत थे जिन्होंने
हिन्दू और इस्लाम धर्म को सार्वभौमिक रास्ता दिखा कर समन्वित किया जिसे दोनों धर्म
के द्वारा माना गया। कबीर के अनुसार हर जीवन का दो धार्मिक सिद्धातों से रिश्ता
होता है (जीवात्मा और परमात्मा)। मोक्ष के बारे में उनका विचार था कि ये इन दो
दैवीय सिद्धांतों को एक करने की प्रक्रिया है।
उनकी महान रचना बीजक में कविताओं की भरमार है जो कबीर के धार्मिकता पर सामान्य विचार को स्पष्ट
करता है। कबीर की हिन्दी उनके दर्शन की तरह ही सरल और प्राकृत थी। वो ईश्वर में
एकात्मकता का अनुसरण करते थे। वो हिन्दू धर्म में मूर्ति पूजा के घोर विरोधी थे और
भक्ति तथा सूफ़ी विचारों में पूरा भरोसा दिखाते थे।
कबीर के द्वारा रचित सभी कविताएँ और गीत कई सारी भाषाओं में
मौजूद है। कबीर और उनके अनुयायियों को उनके काव्यगत धार्मिक भजनों के अनुसार नाम
दिया जाता है जैसे बनिस और बोली। विविध रुप में उनके कविताओं को साखी, श्लोक (शब्द)
और दोहे (रमेनी) कहा जाता है। साखी का अर्थ है परम सत्य को दोहराते और याद करते
रहना। इन अभिव्यक्तियों का स्मरण, कार्य करना और विचारमग्न
के द्वारा आध्यात्मिक जागृति का एक रास्ता उनके अनुयायियों और कबीर के लिये बना
हुआ है।
"
संवत् पन्द्रह सौ पछतरा , कियो मगहर को गोन ।
माघ
सुदी एकादशी , रल्यौ पौन में पौन "।।
कबीर के गुरु के संबंध में भी एक प्रवाद है कि एक समय
अंधेरे में कबीर गंगातट की सीढ़ियों पर गये , उधर से स्वामी
रामानन्द जी गंगा स्नान के लिए गुजरे । तब उनका पांव इन पर पड़ गया । स्वामी
रामानन्दजी राम - राम कह बैठे । बस तभी से कबीर ने रामानन्द को अपना गुरु मान लिया
। कुछ लोग इतक सूफी संत शेख तकी का शिष्य मानते है । कबीर का विवाह भी हुआ था ,
इनकी पत्नी का नाम लोई और उससे उत्पन्न पुत्र का नाम कमाल जिसका
उल्लेख स्वयं कबीर ने किया है -
'' बूड़ा वंश कबीर का , उपजा पूत कमाल''
कबीर के शिष्यों में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही
थे । जिसकी भी मृत्यु
मगहर में होगी वो अगले जन्म में बंदर बनेगा और साथ ही उसे स्वर्ग में जगह नहीं
मिलेगी। कबीर दास की मृत्यु काशी के बजाय मगहर में केवल इस वजह से हुयी थी क्योंकि
वो वहाँ जाकर लोगों के अंधविश्वास और मिथक को तोड़ना चाहते थे। 1575 विक्रम संवत में हिन्दू कैलेंडर के अनुसार माघ शुक्ल एकादशी के वर्ष 1518
में जनवरी के महीने में मगहर में उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा।
ऐसा भी माना जाता है कि जो कोई भी काशी में मरता है वो सीधे स्वर्ग में जाता है
इसी वजह से मोक्ष की प्राप्ति के लिये हिन्दू लोग अपने अंतिम समय में काशी जाते
है। एक मिथक को मिटाने के लिये कबीर दास की मृत्यु काशी के बाहर हुयी।
कृतित्व एवं व्यक्तित्व- कबीर पढ़े - लिखे नहीं थे ।
इन्होंने गुरुकृपा एवं अनुभव के आधार पर जो भी तल्लीन होकर गाया , का पाठ पढ़ते हुए सुनाया , काव्य बन गया । उन्होंने
स्वयं कहा है
"
मसि कागद छूयौ नहीं ,
कलम गही नहिं हाथ ।
चारों
जुग कौ महातमा , मुखहिं जनाई बात ।
कबीर की रचनाएँ
लिपिबद्ध नहीं थीं , उनकी वाणी को ' बीजक '
नाम दिया गया , जिसमें साखी , स्व एवं रमैनी मिलती हैं , जिनको डॉ० श्यामसुन्दर
दास ने संग्रहीत करके कबीर - ग्रन्थावली नाम से सम्पादित किया है । कबीर वचनावली
संकलन भी मिलता है । कबीर की इन साखियों एवं सबदो ( शब्दों ) में निहित अनेक-अनेक
उपेदश जीवन की सच्ची अनुभूति के साथ मिलते हैं ।
साहित्यिक
- अवदान- कबीर ज्ञानमार्गी थे फिर भी वे प्रेम का ढाई
अक्षर पढकर पण्डित हुए थे । दार्शनिक चिन्तन करते हर उन्होंने व्यावहारिक
ज्ञानार्जन किया । वे अपने यग के सबसे महान समाज सुधारक , प्रतिभा
- सम्पन्न एव । प्रभावशाली व्यक्ति थे । ये अनेक प्रकार के विरोधी संस्कारों में
पले थे । नाथ सम्प्रदाय के योग मार्ग और हिन्दत्रों के वेदान्त और भक्ति - मार्ग
का इन पर गहरा प्रभाव या । ये किसी भी बाह्य , आडंबर ,
कर्मकाण्ड तथा पूजापाठ की अपेक्षा पवित्र , नैतिक
और सादे जीवन को अधिक महत्त्व देते थे । सत्य , अहिंसा ,
दया तथा संयम से युक्त धर्म के सामान्य स्वरूप में ही ये विश्वास
करते थे । जो भी संप्रदाय इन मूल्यों के विरुद्ध कहता था। उसका ये निर्ममता से
सण्डन करते थे । इसी से इन्होंने अपनी रचनाओं में हिन्दू और मुसलमान दोनों के
रुद्धिगत विश्वासों एवं धार्मिक कुरीतियों का विरोध किया है । वे नवजीवन के अमर
गायक थे ।
सिद्धान्त
एवं साधना - कबीर निर्गुण एवं निराकार ईश्वर के उपासक थे
। इनके अनुसार ज्ञान और योग की साधना से ही उस महान् शक्ति का साक्षात्कार संभव था
। इस साक्षात्कार से जिस अलौकिक आनन्द की । अनुभूति होती है , उस आनन्द का तथा उसके आलम्बन ( ईश्वर ) का वर्णन ही कबीर की भक्ति का
स्वरूप है । इस भक्ति - भावना में निर्वेद और वैराग्य की प्रधानता है । कबीर की
भक्ति में रहस्यवाद की झलक भी स्पष्ट दिसायी देती है । जीव रूप में स्वयं को पत्नी
मानकर पति - रूप भगवान के प्रति इन्होंने अपने प्रेम की व्यंजना की है । माधुर्य
भाव की इस भक्ति में कबीर के हृदब के आनन्द और उल्लास के दर्शन होते हैं । इसमें
प्रेम के संयोग और वियोग दोनों पक्षों को अत्यन्त मार्मिक एवं मन्दर व्यंजना हुई
है । साथ ही साथ सन्त्रदाय की हठयोग साधना की अनेकानेक विचित्र दशाओं का भी वर्णन
कबीर ने किया है । इडा , पिंगला , सुषुम्ना
, अनहद नाद , कुण्डली , चक आदि का वर्णन नाच - सम्प्रदाय के प्रभाव का स्पष्ट प्रमाण है ।
शैली
- सौन्दर्य- कबीर ने काव्य - शास्त्र का अध्ययन नहीं किया था
। कबीर को छन्दों का जान नहीं या , र छंदों की स्वच्छन्दता
ही कबीर - काव्य की सुन्दरता बन गयी है । अलंकारों का चमत्कार दिखाने की प्रवृत्ति
कबीर में नहीं है , पर इनका स्वाभाविक प्रयोग हृदय को मुन्ध
कर लेता है । इनकी कविता में अत्यन्त सरल और और स्वाभाविक भाव एवं विचार -
सौन्दर्य के दर्शन होते हैं ।
भाषा- कबीर की भाषा में पंजाबी , राजस्थानी , अवधी आदि अनेक प्रान्तीय भाषाओं के शब्दों की दिचड़ी मिलती है । अतः इसे
पंचमेल खिचड़ी कहा जाता है । सहज भावाभिव्यक्ति के लिए ऐसी ही लोकभाषा की आवश्यकता
भी थी। इसीलिए कबीर ने साहित्य की अलंकृत भाषा को छोड़कर लोकभाषा को अपनाया । कबीर
की साखियों की भाषा अत्यन्त सरल और प्रसाद गुण सम्मन्न है । कहीं - कहीं सूक्तियों
का चमत्कार भी दृष्टिगोचर होता है । हठयोग और रहस्यवाद की विचित्र अनुभूतियों का
वर्णन करते समय कबीर की भाषा में लाक्षणिकता आ गयी है । ऐसे स्थलों पर संकेतों और
प्रतीकों के माध्यम से बात कही गयी है । कबीर काब्य की भाषा में उपमा , रूपक , सांगरूपक , अन्योक्ति
यमक , अनुप्रास तथा उत्प्रेक्षा आदि अलंकार सहज व्य में ही आ
गये है । अनुभूतियों को कबीर ने विरोधाभास के माध्यम से उलटवासियों को
चमत्कारपूर्ण शैली में व्यक्त किया है जिससे कहीं - कहीं दुर्बोधता आ गयी है ।
कबीर
के काव्य का सर्वाधिक महत्त्व धार्मिक एवं सामाजिक एकता और भक्ति का संदेश देने
में है । कबीर ने तत्कालीन हिन्दी साहित्य और समाज को नवीन चेतना और नूतन
जीवनदर्शन प्रदान किया । इनका संदेश पवित्र जीवन एवं बाह्य आडम्बर से रहित सहज
भक्ति का संदेश या । इसीलिए हिन्दी के आलोचक और विद्वान् इन्हें समाज - सुधारक
मानते है लेकिन कबीर के इस रूप में इनका युगप्रवर्तक महाकवि का रूप भी छिपा हुआ है
। वास्तव में कबीर समाजसुधारक पहले एवं क्रान्तदर्शी कवि बाद में है ।
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